बीता कल

काश मैं बीता कल बन जाऊँ
हस्ते मुस्कुराते खुद को अपने
गांव मैं पाऊं .

घनी लम्बी फसलों पर ठहरी,
ओस की बूंदो पर
हाथ फिराऊं .

कुछ वक़्त बिताऊं उनके साथ
जो अब नहीं रहे,
हस्ते हस्ते साथ बैठ कर
केतली भर के चाय बनाऊं.

छुपते छुपते नजर बचाते
आमों के पेड़ों पर छुप जाऊं.
सारा जहाँ भूल कर बस
छाँव और आमों का लुतफ उठाऊं.

वो सर्दियों के दिन नहीं भूलते,
ठंडी हवा में शर्ट खोल कर
दादी से फिर डाट मैं खाऊँ

काश मैं बीता कल बन कर
हमेशा के लिए ठहर जाऊँ …
© Dhruv

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